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कैसे इस कगार पर पहुँचा श्रीलंका

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वैसे तो पिछली सदी के आख़िर और इस सदी की शुरुआत के वक़्त भी श्रीलंका एक संकट में घिरा था मगर वो दूसरी तरह का संकट था. श्रीलंका में तब गृहयुद्ध हो रहा था. उसमें एक तरफ़ वहाँ की बहुसंख्यक सिंहला आबादी थी, दूसरी ओर तमिल अल्पसंख्यक.

1983 में श्रीलंका के अलगाववादी संगठन एलटीटीई और श्रीलंका सरकार के बीच गृहयुद्ध छिड़ गया जो 2009 में समाप्त हुआ. तब महिंदा राजपक्षे श्रीलंका के राष्ट्रपति थे. 2010 में हुए चुनाव में और भारी जीत के साथ दोबारा राष्ट्रपति चुने गए.

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26 साल तक चले इस संघर्ष ने भी श्रीलंका की अर्थव्यवस्था को कमज़ोर किया, मगर लड़ाई ख़त्म होने के बाद ऐसी आशा जगी कि शायद श्रीलंका में अर्थव्यवस्था पटरी पर लौट आएगी.

ऐसा हुआ भी, और 2009 से 2012 के बीच श्रीलंका की जीडीपी 8-9% की गति से बढ़ी.

श्रीलंका मुख्य तौर पर चाय, रबड़ और कपड़ों जैसे उत्पादों का निर्यात करता है, जिससे उसे विदेशी मुद्रा की कमाई होती है. इसके अलावा वो पर्यटन तथा विदेशों में बसे अपने नागरिकों के भेजे पैसों से भी कमाई करता है. इन पैसों से वो अपने ज़रूरत की चीज़ें आयात करता है जिनमें खाने-पीने के सामान शामिल हैं.

मगर 2012 के बाद से श्रीलंका की अर्थव्यवस्था में उतार-चढ़ाव आता रहा जब अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कीमतें गिरने लगीं, श्रीलंका का निर्यात धीमा होने लगा, और आयात बढ़ने लगा.

और देखते-देखते देश का विदेशी मुद्रा भंडार खाली होने लगा, भुगतान संकट खड़ा हो गया. श्रीलंका ने बुनियादी ढाँचे के विकास के लिए चीन जैसे देशों से कर्ज़ लिए थे, उनकी किस्तें चुकाना भी भारी पड़ने लगा.

ख़ाली होता विदेशी मुद्रा भंडार और पर्यटन को झटका

इन्हीं हालात में श्रीलंका को 2016 में एक बार फिर अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के पास कर्ज़ के लिए जाना पड़ा. तब मैत्रिपाला सिरिसेना राष्ट्रपति थे और महिंदा राजपक्षे प्रधानमंत्री.

स्थितियाँ सुधरने लगीं मगर सिरिसेना सरकार के कार्यकाल के आख़िरी वर्ष में अप्रैल 2019 में कोलंबो में सिलसिलेवार बम धमाके हुए जिसमें चर्चों और लग्ज़री होटलों को निशाना बनाया गया. ईस्टर के दिन जिहादियों के इस आत्मघाती हमले में 350 से ज़्यादा लोग मारे गए.

इस घटना के बाद एक बार फिर अंतरराष्ट्रीय पर्यटकों की संख्या गिरने लगी और 2019 में श्रीलंका की पर्यटन से होने वाली आय पर ख़ासा असर पड़ा.

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