श्रीनगर में लाल चौक से पैदल चलना शुरू करें तो कुछ ही मिनटों में झेलम के घाट दिखने लगेंगे. चिनार के पेड़ों से घिरे इसके किनारे कभी सैलानियों से गुलजार रहते. नए जोड़े पतझड़ में लाल-नारंगी दरख्तों तले तस्वीरें खिंचाते. मलमली घास पर बच्चे धमाचौकड़ी करते. और थके हुए परिवार हाउसबोट्स में रात गुजारते. ये बात कुछ तीन दशक पुरानी होगी. झेलम अब वो नदी है, वक्त जिससे होकर गुजर चुका.
रुखसाना (बदला हुआ नाम)! दादा-परदादा के जमाने की सीलनभरी हाउसबोट में बैठी लगभग 15 साल की ये बच्ची धीरे-धीरे खुलती है- ‘मेरी सहेलियां अच्छे कपड़े पहनतीं, घूमतीं, मर्जी का खातीं. उनका अपना घर है, जो हवा के झोंकों में पलटकर डूब नहीं जाता. मैं इससे निकलना चाहती थी. एक से मिली, दूसरे से, और फिर कइयों से. जब बच्चा गिराया तो शरीर का दर्द कम था, राहत ज्यादा कि वो भी मेरी तरह हाउसबोट में कैद होकर नहीं रह जाएगा’

जिस कमरे में रुखसाना से मेरी बात हो रही थी, वहां लकड़ी की दीवार पर मेन्यू कार्ड चिपका था. चाय-कॉफी और मैगी-बिरयानी की कीमत बताता मेन्यू कार्ड. एक कोने में डूबते सूरज की सस्ती पेंटिंग भी थी. लाल पर्दों, लाल चादर वाले बिस्तर के बीच दुबली-पतली ये बच्ची खुद उस पुरानी तस्वीर की तरह दिखती है, जिसे वक्त ने बेरंग कर दिया है. रुखसाना झेलम किनारे एक हाउसबोट में रहती है. यहीं जन्मी…और शायद यहीं बीत भी जाए.
किसी वक्त पर ‘फुल’ रहते हाउसबोट में हफ्तों में कोई मेहमान आता है. रुखसाना इस बीच जरूरतें पूरी करने के फेर में ‘बहक’ गई! ये बात वो खुद मानती है.
19वीं सदी के आखिर में कश्मीर में हाउसबोट्स की शुरुआत हुई. कम से कम दस्तावेज यही कहते हैं. तब ब्रिटिश राज था. अमीर ब्रितानी परिवार छुट्टियां मनाने घाटी जाते. भीड़ बढ़ने लगी. तभी फैसला आया कि गैर-राजनीतिक पहचान वाले ब्रिटिशर्स वहां जमीन नहीं ले सकेंगे. पूर्वी और मध्य भारत की गर्मी झेलते समुदाय ने इसका तोड़ निकाला. वे पानी में घर बनवाने लगे.
हाउसबोट! इनमें रसोई भी थी, बेडरूम भी और मेहमानों के लिए बैठक भी. हर ढलती शाम चिनार से झांकता सूरज नदी को नारंगी पोल्का डॉट्स से भर देता.
पानी पर हिलडुल करते इन रूमानी घरों के मालिक कश्मीरी ही थे, लेकिन उन्हें सालो-साल के लिए किराए पर अंग्रेज ले रहे थे. क्वीन्स लिली और न्यू बकिंगघम जैसे नाम अब भी उस दौर की कहानी कहते हैं. बाद में इन नामों के आगे न्यू या डीलक्स जोड़ दिया गया ताकि वे अपग्रेडेड लगें. आजादी के बाद अंग्रेज गए और हाउसबोट पूरी तरह से कश्मीरी कारीगरों के हो गए, जिन्होंने इसपर असल काम किया था.
श्रीनगर के बीचोबीच बहती झेलम नदी तब घाटी का असल कशिश थी. जा चुके अंग्रेज भी वहां लौट-लौटकर आते. एडवेंचर टूरिस्ट भी, और भारतीय भीड़ भी. लेकिन वक्त के साथ झेलम की खूबसूरती छीजने लगी.
डल झील नया श्रीनगर थी. वहां सफाई ज्यादा थी, सुरक्षा भी और आधुनिकता भी. जल्द ही झेलम के हिस्से की रौनक छंटकर डल पहुंचने लगी.साल 2014 की बाढ़ ने बची-खुची उम्मीद भी खत्म कर दी. तब हजार से ज्यादा हाउसबोट्स थीं. साल 2021 में वे घटकर तीन सौ के करीब बाकी रहीं. अब इनकी संख्या सैकड़ा से भी कम है. कई दशक पुरानी बोट हल्की हवा में भी पलटी मार जाती हैं. जो बाकी हैं वो इतनी तंग और बदहाल हैं कि सैलानियों का आना बंद हो चुका.
रुखसाना ऐसी ही एक हाउसबोट में रहती है.
शाम का वक्त. जमीन से बोट तक पहुंचने के लिए एक पतला पुल पार करना था. देवदारी लकड़ी से बना प्लैंक पानी में डगर-मगर के साथ अब टूटा-तब टूटा जैसी आवाजें करता हुआ. किनारे लिली के फूलों की जगह खरपतवार फैल चुकी. कश्मीरियत में पगे स्थानीय लोग प्यार से इसे भी जल-गुल कहते हैं. जल-गुल के नीचे सड़ता पानी पुराने बस स्टैंड की महक ताजा करता हुआ.
अंदर रुखसाना के पहले उनके माता-पिता मिलते हैं. डरे हुए कि कहीं उनकी बेटी दोबारा किसी मुसीबत में तो नहीं जा रही! कश्मीरी-हिंदी में भरोसा दिया-दिलाया जाता है. अब रुखसाना के साथ मैं अकेली हूं. उसके और बड़े भाई के साझा कमरे में.
‘तुम पढ़ती हो?’
‘नहीं. मम्मी-डैडी छुड़वा चुके.’
‘फिर दिनभर क्या करती हो!’
‘क्या करूंगी! खिड़की के बाहर देखती रहती हूं. भाई के हेडफोन पर गाने सुनती हूं. और कभी-कभार गेम खेलती हूं.’
‘तुम्हारे पास अपना फोन नहीं?’
‘भाई का फोन टूट गया था, तो उसने मेरा मोबाइल ले लिया.’
दुबले कंधे उचकाकर जवाब देती इस लड़की की उम्र भांपना आसान नहीं. वो किसी मिनट बेहद छोटी लगती है, किसी मिनट बहुत बड़ी. बड़ी… क्योंकि ये तमाम साल उसने लकड़ी के एक डूबते घर के भीतर बिता दिए. छोटी… क्योंकि इन तमाम सालों ने उसे डुबोकर भी जिंदा रखा.
लगभग दो साल पहले किशोरों पर काम करने वाले एक एनजीओ को पता लगा कि हाउसबोट पर एक नाबालिग प्रेग्नेंट है. वो पहुंचा. पुलिस पहुंची. जांच हुई तो कई बातें खुलीं. बच्ची को नहीं पता था कि भ्रूण का पिता कौन है. उसने एक-एक करके कई नाम गिना दिए, जिनके संपर्क में वो रह चुकी थी. बच्चा गिराया गया. और बच्ची को काउंसलिंग के बाद वापस उसी बोट में छोड़ दिया गया.
अब रुखसाना या उसकी कहानी में किसी की दिलचस्पी नहीं. खुद उसकी भी.
आलथी-पालथी लगाए बैठी ये बच्ची याद करती है- ‘तीन साल पहले तेज हवा में हमारी डूंगी आधी डूब गई थी. सुबह जागे तो मेरे पैर पानी में थे. मम्मी-डैडी उसके बाद से बाहर जाने लगे. कभी डूंगी की मरम्मत के पैसों के लिए. कभी जमीन मांगने के लिए. अक्सर वे खाली हाथ लौटते. उनकी जिंदगी डूंगी के इर्द-गिर्द सिमट गई थी.’
बोलते हुए रुखसाना एकदम चुप हो जाती है, जैसे परख रही हो कि कहने का कोई फायदा है भी, या नहीं! बोलते हुए लगातार उचकते कंधे अबकी चुप. जैसे टटोल में वे भी साझेदार हों.
‘फिर…?’
कंधे लय में लौटते हैं. रुखसाना कहती है- ‘मैं मिलने लगी. पहले अपनी उम्र वालों से, फिर बड़ों से भी. उसके पैसे मिलते थे.’
‘उन पैसों का क्या करती थी?’
‘पैसों का क्या करते हैं!’ 15-साला बच्ची कुछ उकताए हुए पूछती है. ‘कपड़े खरीदती. जैसे सब पहनती हैं. जूते खरीदे. हेडफोन लिया. शहर घूमा. बहुत से पैसे बच भी जाते थे, वो मम्मी को दे देती.’
‘यानी घरवालों को पता था?’
‘पता नहीं. न मैंने बताया. न उन्होंने पूछा. जब चार महीने तक पीरियड नहीं आए, और पता लगा कि पेट से हूं. तब सवाल-जवाब हुए. डैडी पीटते हुए रो रहे थे. मम्मी रोते हुए पीट रही थी. भाई न रो रहा था, न पीट रहा था.’
‘बहुत से नए लोग आए. मुझसे बात करने के लिए. पुलिस भी आई. फिर मार्केट से बहुत सारे लड़के पकड़े गए.’
‘तुम्हारी उम्र में ये कॉमन है. लगभग सारी लड़कियों के लिए. लेकिन तुम इतने लोगों से क्यों जुड़ी?’
हैरानी जताती हुई मेरी समझाइश के बीच बच्ची के चेहरे से गर्द का गुबार गुजर जाता है. दुबला-पारदर्शी-चेहरा कुम्हलाया हुआ. बात संभालते हुए मैं कुछ कहूं, उससे पहले वे बोल पड़ती है- ‘मेरी सारी सहेलियां किस्म-किस्म के कपड़े लेतीं. मनमर्जी का खातीं. मैं क्या करती! सारा दिन पानी में खड़े इस कबाड़ में बैठी रहती!’
‘बच्चा गिराने के बाद से मैं यहीं हूं. मम्मी-डैडी कहीं जाने नहीं देते.’