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दलित राजनीति – “हक के लिये लड़ना होगा, गिड़गिड़ाने से बात नहीं बनेगी”

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“इस देश में जाति के आधार पर ही पदों, लाभों का वितरण और उत्पीड़न होता है। देश की जनसँख्या के कुल 15 प्रतिशत सवर्णों और उनके सहयोगियों ने पदों, लाभों और सत्ता के सभी स्रोत एवं संसाधनों को हथिया रखा है। इसलिए इस अन्यायपूर्ण स्थिति की समाप्ति के लिए बहुजन समाज को एकजुट होकर राजनीतिक सत्ता पर काबिज़ होने के लिए संघर्ष करना होगा।” कांशीराम द्वारा कही गई इस बात में आज भी उतनी ही सच्चाई है जितनी उस समय थी।

 

लेकिन विडंबना ही है कि आज भी सर्वहारा समाज अपने हितों की रक्षा के लिए उन बहुजन नेताओं की ओर टकटकी लगाए देखता रहता है जो राजनीतिक सत्ता में सिर्फ उस पॉलिटिकल रिजर्वेशन की बदौलत आए हैं, जो उन्हें बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव आंबेडकर के संविधान की वजह से मिला। ऐसे बहुत कम नेता होंगे जो अपने समाज के मुद्दों को विधानसभाओं में और संसद में उठाते हैं।

कांशीराम कहते थे, “जिसकी जितनी संख्या भारी-उसकी उतनी हिस्सेदारी” जबकि सच्चाई ये है कि आज तक बहुजन समाज को आरक्षण का लाभ ही पूर्ण रूप में नहीं मिल पाया, हिस्सेदारी के हिसाब से मिलना तो दूर-दूर तक संभव नहीं दिखता।

ज़मीनी संघर्ष करते हुए “फर्श से अर्श” तक के कथन को साकार करते हुए उन्होंने बहुत कम समय में ही बहुजन समाज की न केवल एक राष्ट्रीय पार्टी खड़ी कर दी बल्कि देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में अपनी पार्टी की सरकार भी बना डाली।

 

सालों से वंचित समुदाय खुद को अब उद्वेलित महसूस करने लगा था, जिस कारण बड़ी संख्या में उनके इस आंदोलन से लोग जुड़ते चले गए और यह कैसे संभव हुआ इसे समझना भी समकालीन भारतीय राजनीति के अध्येताओं के लिए एक पहेली ही है। परन्तु कांशीराम जी के चले जाने के बाद जो रिक्तता आई है उसकी भरपाई अभी तक नहीं हो पाई है। आने वाले समय में ऐसा हो पाएगा या नहीं, यह तो वक्त ही बताएगा।

टुकड़ों में बंटा बहुजन मिशन

यूँ तो कई बहुजन नेता आज सक्रिय दिखने लगे हैं लेकिन धरातल पर कितने मजबूत हैं यह भी देखना होगा। आज बहुजन मिशन कई टुकड़ों में बंट चुका है जिसमें सबके अपने-अपने नेता हैं और जो नेता इस समाज को राजनीति के चलते मिले, वे खुद को पार्टियों से बाहर नहीं कर पाए। कभी राजनीतिक मज़बूरी के चलते तो कभी सीट गंवा देने के डर से। पर अब समय आ चुका है कि बहुजन समाज अपना कांशीराम खोज ले और उसी रूप में आगे बढ़े जिसकी कल्पना समाज के महापुरुषों ने कभी की थी।

जाति व्यवस्था का बोलबाला

कांशीराम का जन्म 15 मार्च, 1934 को पंजाब के रोपड़ जिले में खवासपुर-पिरथपुर बुंगा गांव में हुआ था। कांशीराम का परिवार रविदासी समाज से था और जो कि भारतीय समाज में अछूत माना जाता है। जिस वक्त कांशीराम पैदा हुए उस वक्त पंजाब में क्या संपूर्ण भारत में जाति का और छुआछूत का कलंक पूर्ण रूप से व्याप्त था।

नौकरी छोड़कर जाति को किया लामबंद

स्थानीय शहर से प्रारंभिक शिक्षा हासिल करने के बाद कांशीराम ने 1956 में विज्ञान विषय की डिग्री गवर्नमेंट कॉलेज रोपड़ से प्राप्त की। उन्होंने 1958 में ग्रेजुएशन करने के बाद पुणे स्थित डीआरडीओ में बतौर सहायक वैज्ञानिक काम किया। इसी दौरान आंबेडकर जयंती पर सार्वजनिक छुट्टी को लेकर किए गए संघर्ष से उनका ऐसा हृदय परिवर्तन हुआ कि कुछ साल बाद उन्होंने नौकरी छोड़कर ख़ुद को सामाजिक और राजनीतिक संघर्ष में झोंक दिया। उन्होंने जाति की लामबंदी कर समुदाय के भीतर नया आत्मविश्वास पैदा किया।

जातिगत व्यवस्था और वर्ण संरचना ही भारत में असमानता और गैर बराबरी की सूत्रधार रही है। सर्व समाज की कल्पना तभी संभव है जब इस व्यवस्था का खात्मा होगा। उसके लिए बहुजन समाज में नए आत्मविश्वास और आत्मसम्मान को जगाना होगा और जिसका रूपांतरण कांशीराम आसानी से राजनीति के सफल प्रयोगों द्वारा करते चले गये।

 

एक ओर जहाँ डॉक्टर आंबेडकर ने देश में लोकतंत्र के संवैधानिक आधारभूत ढाँचे को मजबूत किया, वहीं, कांशीराम ने बहुजन समाज को राजनीति की जुगलबंदियां बताने और राजनीतिक दांव-पेच में माहिर बनाने की न सिर्फ कला सिखायी बल्कि इसकी वैधता का विज्ञान खड़ा करने वाले नए विमर्श भी पैदा किए। 

 

इसे समझने के लिए असल में कांशीराम को समझना होगा ताकि इस बहुजन नायक के राजनीतिक उदय को बेहतर तरीके से समझा जा सके। हज़ारों वर्षों से हाशिये पर धकेले गए बहुजन समाज की मनः स्थिति और मनो विज्ञान को समझने के लिए वह कैसे देश का चप्पा-चप्पा छानते थे। देश-दुनिया की बदलती परिस्थितियों के अनुरूप राजनीति का नया मुहावरा गढ़ते थे।

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