किसान आंदोलन: लोगों के मन से सरकार का डर निकलता जा रहा है!
1 min readचालीस से ज़्यादा दिनों से देश के एक कोने में चल रहे आंदोलन, हाड़ कंपाती ठंड के बीच भी किसानों, महिलाओं और बच्चों की मौजूदगी, अश्रु गैस के गोले और पानी की बौछारें, हरेक दिन हो रही एक-दो मौतें और इतने सब के बावजूद सरकार की अपने ही नागरिकों की बात नहीं मानने की हठधर्मिता और अहंकारी आत्मविश्वास के पीछे क्या कारण हो सकते हैं?
पहला कारण तो सरकार का यह मानना हो सकता है कि गलती हमेशा नागरिक करता है, हुकूमतें नहीं। दूसरा यह कि जनता सब कुछ स्वीकार करने के लिए बाध्य है। वह कोई विरोध नहीं करती, ऐसी ही उसे उसके पूर्व-अनुभवों की सीख भी है।
नोटबंदी का दर्द
आपातकाल की तरह ही नोटबंदी राष्ट्र के नाम एक संदेश के साथ आठ नवम्बर 2016 को लागू कर दी गई थी। तब के वित्त मंत्री अरुण जेटली ने बाद में दावा किया कि सिर्फ़ तीन बैंक कर्मियों और एक ग्राहक समेत कुल चार लोगों की इस दौरान मौत हुई। विपक्ष ने नब्बे से ज़्यादा लोगों की गिनती बताई। करोड़ों लोगों ने तरह-तरह के कष्ट और अपमान चुपचाप सह लिए। सरकार की आत्मा पर कोई असर नहीं हुआ। उसका सीना और चौड़ा हो गया।
कोरोना के बाद देश भर में अचानक से लॉकडाउन घोषित कर दिया गया। लाखों प्रवासी मज़दूरों को भूखे-प्यासे और पैदल ही अपने घरों की तरफ़ निकलना पड़ा। वे रास्ते भर लाठियां खाते रहे, अपमान बर्दाश्त करते रहे। सरकार के ख़िलाफ़ कहीं कोई नाराज़गी ज़ाहिर नहीं हुई। सरकार का सीना और ज़्यादा फूल गया।
संसद के सत्रों में कटौती
संसद के सत्र छोटे कर दिए गए अथवा ग़ायब कर दिए गए। विपक्ष की असहमति की आवाज़ दबा दी गई। जनता की ओर से कहीं कोई शिकायत नहीं दर्ज कराई गई। सरकार ने मान लिया कि जनता सिर्फ़ उसी के साथ है। जो लोग आंदोलनकारियों के साथ हैं वह जनता ही नहीं है। सरकार अब जो चाहेगी वही करेगी। वह ज़रूरत समझेगी तो देश को युद्ध के लिए भी तैयार कर सकती है।