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अब लव जिहाद ले आए… क्या आपस में मिलना-जुलना भी छोड़ दें?

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सच्ची, मुझे बहुत ज़्यादा परेशानी इसलिए नहीं हुई क्योंकि मुझे घर पर रहने की आदत है। मैं फ़िल्में करता हूँ, जो ज़्यादातर एक ही दौर में ख़त्म हो जाती हैं। उसके बाद मैं एकाध महीने की छुट्टी ज़रूर लेता हूँ। अपने घर पर पड़ा रहता हूँ, बच्चों के साथ वक़्त गुज़ारता हूँ, पढ़ता हूँ, लिखता हूँ, फ़िल्में देखता हूँ, टेनिस खेलता हूँ, अपने फार्म हाउस पर चला जाता हू। जैसे ही लॉकडाउन हुआ तो सबसे पहले तो मुझे ये ख्याल आया कि थिएटर तो बंद हो गया। थिएटर मेरी नसों में ख़ून की तरह बह रहा है। सबसे ज़्यादा मुझे कमी उसकी महसूस हुई। हॉर्न की आवाजें नहीं सुनाई दे रही थीं, ट्रैफिक जाम नहीं लग रहे थे, लोग एक-दूसरे का लिहाज रख रहे थे। एकाध बार तो ऐसा हुआ कि जब टहलते हुए जेब्रा कॉसिंग पर एक गाड़ी मेरे लिए रुकी, जो कि कभी नहीं होता है। लोग नहीं रुकते यहां पर क्योंकि ईगो प्रॉब्लम हो जाती है। और आसमान साफ था, समुद्र नीला नजर आने लगा, मछलियां, जानवर, पक्षी, वह तो सब हुआ ही। लेकिन घर में बंद रहने से मुझे इतनी तकलीफ नहीं हुई, जितनी थिएटर में काम न करने की वजह से। हमेशा इससे ही अपना दिमागी तवाजुन थिएटर के सहारे ही संभाला है।

एक ऐसा दौर था, जब मैं कई सारी फ़िल्में कर रहा था। खुदा का शुक्र है कि सब उसे भूल गए हैं अब, सब एक से एक बेहूदा फ़िल्में थीं। पैसा बहुत कमा रहा था और परेशानी हो रही थी कि क्या मुझे जिंदगी भर इसी तरह की फ़िल्में करनी पड़ेंगी? मैं तो इससे बावला हो जाऊँगा। थिएटर ही था जिसने मुझे बचाया। उस दौरान में मैं दिन में शूटिंग करता था और शाम को पृथ्वी थिएटर में आकर शो करता था। नौजवान था उस वक़्त, 30-32 साल की उम्र थी, स्टेमिना बहुत था, मगर अब मुझसे वो नहीं हो पाएगा।

लेकिन थिएटर का मुझपर बहुत बड़ा कर्ज है, जो मैं चुका नहीं पाऊँगा। जो कुछ भी मैंने सीखा है और पाया है, वह थिएटर से ही पाया है और इससे मेरा जुड़ाव कभी खत्म नहीं हो सकता, भले ही फ़िल्मों से मेरा जुड़ाव ख़त्म हो जाए। तो इस दौरान एक तो मैंने घर में झाड़ू और पोंछा लगाना सीखा, जो कि कभी नहीं किया था। किचन में जाकर मदद किया करता था। रत्ना हालाँकि मुझे भगा देती थीं। फिर भी प्याज, आलू, टमाटर वगैरह काटा करता था। एकाध बार दाल भी बनाई तो मुझे बड़े अचीवमेंट का अहसास हुआ। और ये आदत मैंने अब बना ली है कि मुझे घर में कुछ न कुछ मदद करनी है और ये मुझे बहुत पहले ही शुरू कर देनी चाहिए थी।

घर में हमारे कोई भी टेंशन नहीं। न डोमेस्टिकली, न बच्चों के साथ। रमजान का महीना भी चल रहा था तो एक महीना तो यूँ ही निकल गया, इफ्तारी के इंतज़ार में। सुनने में आया कि जेहनी बीमारियाँ बहुत फैल रही थीं लॉकडाउन के दौरान, डोमेस्टिक वॉयलेंस बहुत हो रही थी, मिसअंडरस्टैंडिंग बहुत हो रही थी, सेपरेशन बहुत हो रहे थे। जितना मैं सोच रहा था कि इतनी फ़िल्में देखूँगा, मगर पहले हफ्ते तो टीवी खुला ही नहीं। क्योंकि रत्ना, मैं और मेरे बेटे ने सोचा कि हम शेक्सपीयर पढ़ते हैं। जब तक मेरा बेटा झेल पाया, हमने बैठकर पढ़े। फिर वो अपने काम में लग गया। लेकिन मैंने शेक्सपीयर साहब के सारे नाटक पढ़ डाले। क्योंकि मुझे ख्याल आया कि जूलियस सीजर, मर्चेंट ऑफ़ वेनिस ये तो हर कोई जानता है। लोगों को ये भी मालूम है कि मैक्बेथ और हेमलेट क्या है, हालाँकि लोग उनकी कहानियों में कन्फ्यूज होते हैं। मैंने सात या आठ नाटक उनके पढ़े थे, तीन चार में काम किया था। और दो तीन ऐसे थे, जिनके बारे में सरसरी तौर पर मालूम था। मैंने सोचा कि पैंतीस नाटक लिखे हैं इस शख्स ने। और मैंने कुल बारह से वाकफियत है मेरी।

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